सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। जैसे सत्य सनातन है। ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है। वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है।
वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिए सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है। मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन है। एकनिष्ठता, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण का मोक्ष मार्ग है अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है। मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है। यही सनातन धर्म का सत्य है।
सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम आदि हैं जिनका शाश्वत महत्व है। अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व वेदों में इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था।
।।ॐ।।असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।।- वृहदारण्य उपनिषद
भावार्थ : अर्थात हे ईश्वर मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।
जो लोग उस परम तत्व परब्रह्म परमेश्वर को नहीं मानते हैं वे असत्य में गिरते हैं। असत्य से मृत्युकाल में अनंत अंधकार में पड़ते हैं। उनके जीवन की गाथा भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है। वे कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं होते। मृत्यु आए इससे पहले ही सनातन धर्म के सत्य मार्ग पर आ जाने में ही भलाई है। अन्यथा अनंत योनियों में भटकने के बाद प्रलयकाल के अंधकार में पड़े रहना पड़ता है।
।।ॐ।। पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।- ईश उपनिषद
भावार्थ : सत्य दो धातुओं से मिलकर बना है सत् और तत्। सत का अर्थ यह और तत का अर्थ वह। दोनों ही सत्य है। अहं ब्रह्मास्मी और तत्वमसि। अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ और तुम ही ब्रह्म हो। यह संपूर्ण जगत ब्रह्ममय है। ब्रह्म पूर्ण है। यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है। पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनता नहीं आती। वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है। यही सनातन सत्य है।
जो तत्व सदा, सर्वदा, निर्लेप, निरंजन, निर्विकार और सदैव स्वरूप में स्थित रहता है उसे सनातन या शाश्वत सत्य कहते हैं। वेदों का ब्रह्म और गीता का स्थितप्रज्ञ ही शाश्वत सत्य है। जड़, प्राण, मन, आत्मा और ब्रह्म शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं। सृष्टि व ईश्वर (ब्रह्म) अनादि, अनंत, सनातन और सर्वविभु हैं।
जड़ पांच तत्व से दृश्यमान है- आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी। यह सभी शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं। यह अपना रूप बदलते रहते हैं किंतु समाप्त नहीं होते। प्राण की भी अपनी अवस्थाएं हैं: प्राण, अपान, समान और यम। उसी तरह आत्मा की अवस्थाएं हैं: जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और तुर्या। ज्ञानी लोग ब्रह्म को निर्गुण और सगुण कहते हैं। उक्त सारे भेद तब तक विद्यमान रहते हैं जब तक कि आत्मा मोक्ष प्राप्त न कर ले। यही सनातन धर्म का सत्य है।
ब्रह्म महाआकाश है तो आत्मा घटाकाश। आत्मा का मोक्ष परायण हो जाना ही ब्रह्म में लीन हो जाना है इसीलिए कहते हैं कि ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या यही सनातन सत्य है। और इस शाश्वत सत्य को जानने या मानने वाला ही सनातनी कहलाता है।
हिंदुत्व : ईरानी अर्थात पारस्य देश के पारसियों की धर्म पुस्तक ‘अवेस्ता’ में ‘हिन्दू’ और ‘आर्य’ शब्द का उल्लेख मिलता है। दूसरी ओर अन्य इतिहासकारों का मानना है कि चीनी यात्री हुएनसांग के समय में हिंदू शब्द की उत्पत्ति इंदु से हुई थी। इंदु शब्द चंद्रमा का पर्यायवाची है। भारतीय ज्योतिषीय गणना का आधार चंद्रमास ही है। अत: चीन के लोग भारतीयों को ‘इन्तु’ या ‘हिंदू’ कहने लगे। कुछ विद्वान कहते हैं कि हिमालय से हिन्दू शब्द की उत्पत्ति हुई है। हिन्दू कुश पर्वत इसका उदाहरण है। हिन्दू शब्द कोई अप्रभंश शब्द नहीं है अन्यथा सिंधु नदि को भी हिन्दू नहीं कहा जाता।
आर्यत्व : आर्य समाज के लोग इसे आर्य धर्म कहते हैं, जबकि आर्य किसी जाति या धर्म का नाम न होकर इसका अर्थ सिर्फ श्रेष्ठ ही माना जाता है। अर्थात जो मन, वचन और कर्म से श्रेष्ठ है वही आर्य है। बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य का अर्थ चार श्रेष्ठ सत्य ही होता है। बुद्ध कहते हैं कि उक्त श्रेष्ठ व शाश्वत सत्य को जानकर आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करना ही ‘एस धम्मो सनंतनो’ अर्थात यही है सनातन धर्म।
इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है। प्राचीन भारत को आर्यावर्त भी कहा जाता था जिसका तात्पर्य श्रेष्ठ जनों के निवास की भूमि था।
सनातन मार्ग : विज्ञान जब प्रत्येक वस्तु, विचार और तत्व का मूल्यांकन करता है तो इस प्रक्रिया में धर्म के अनेक विश्वास और सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं। विज्ञान भी सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है किंतु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है विज्ञान धीरे-धीरे उससे सहमत होता नजर आ रहा है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्था में ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को जानकर उसे स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया था। वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटाकर ‘मोक्ष’ की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था। मोक्ष के बगैर आत्मा की कोई गति नहीं इसीलिए ऋषियों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है।
मोक्ष का मार्ग : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में मोक्ष अंतिम लक्ष्य है। यम, नियम, अभ्यास और जागरण से ही मोक्ष मार्ग पुष्ट होता है। जन्म और मृत्यु मिथ्या है। जगत भ्रमपूर्ण है। ब्रह्म और मोक्ष ही सत्य है। मोक्ष से ही ब्रह्म हुआ जा सकता है। इसके अलावा स्वयं के अस्तित्व को कायम करने का कोई उपाय नहीं। ब्रह्म के प्रति ही समर्पित रहने वाले को ब्राह्मण और ब्रह्म को जानने वाले को ब्रह्मर्षि और ब्रह्म को जानकर ब्रह्ममय हो जाने वाले को ही ब्रह्मलीन कहते हैं।
विरोधाभासी नहीं है सनातन धर्म :
सनातन धर्म के सत्य को जन्म देने वाले अलग-अलग काल में अनेक ऋषि हुए हैं। उक्त ऋषियों को दृष्टा कहा जाता है। अर्थात जिन्होंने सत्य को जैसा देखा, वैसा कहा। इसीलिए सभी ऋषियों की बातों में एकरूपता है। जो उक्त ऋषियों की बातों को नहीं समझ पाते वही उसमें भेद करते हैं। भेद भाषाओं में होता है, अनुवादकों में होता है, संस्कृतियों में होता है, परम्पराओं में होता है, सिद्धांतों में होता है, लेकिन सत्य में नहीं।
वेद कहते हैं ईश्वर अजन्मा है। उसे जन्म लेने की आवश्यकता नहीं, उसने कभी जन्म नहीं लिया और वह कभी जन्म नहीं लेगा। ईश्वर तो एक ही है लेकिन देवी-देवता या भगवान अनेक हैं। उस एक को छोड़कर उक्त अनेक के आधार पर नियम, पूजा, तीर्थ आदि कर्मकांड को सनातन धर्म का अंग नहीं माना जाता। यही सनातन सत्य है।
सनातन धर्म के रहस्य
मृत व्यक्ति का सिर उत्तर की ओर क्यों रखा जाता है?
मृतक (पुरुष) को उत्तर की ओर सिर करके लेटने के लिए मजबूर किया जाता है ताकि मृत्यु के क्षण में आत्मा दसवें द्वार से बाहर निकल सके। दक्षिण से उत्तर चुंबकीय विद्युत धारा की दिशा है। ऐसा माना जाता है कि मृत्यु के बाद भी आत्मा कुछ समय के लिए मस्तिष्क में घूमती रहती है। ध्रुवीय आकर्षण के कारण उत्तर की दिशा में सिर घुमाने से प्राणों का तेजी से अंत हो जाता है।
कौन सा दिन मरने के लिए उपयुक्त है और कौन सा प्रतिकूल है?
जब कोई जीव शुक्ल पक्ष, दिन, या उत्तरायण छह महीने की अवधि के दौरान मर जाता है, तो उसकी आत्मा ब्रह्मलोक की यात्रा करती है और ब्रह्म के साथ मिल जाती है, लेकिन जो लोग दक्षिणायन छह महीने की अवधि के दौरान मर जाते हैं, वे चंद्रमा पर जाते हैं और दायरे में पुनर्जन्म लेते हैं। सन्नाटे में।
मरने के बाद बेटे ही क्यों करें श्राद्ध और अन्य संस्कार?
पिता के वीर्य से पैदा हुआ बच्चा उन्हीं की तरह काम करता है। हिंदू धर्म में “पुत्र” शब्द का अर्थ “पु” है, जिसके पास पिता को नरक से बचाने और उसे सर्वोत्तम संभव स्थान पर रखने का कार्य है। यह बताता है कि केवल पुत्र ही पिता के सभी शारीरिक कर्तव्यों का पालन क्यों करता है। एक ही रास्ते से दो चीजें निकलती हैं। एक “बेटा” है, दूसरा “मूत्र” है। यदि पिता का पुत्र उसकी मृत्यु के बाद सभी अंतिम संस्कार नहीं करता है, तो वह भी “मूत्र” के समान है।
सनातन धर्म में महिलाएं माथे पर सिंदूर क्यों लगाती हैं?
सीमांत अर्थ में मांग में सिंदूर लगाना स्त्रियों के विवाहित होने का संकेत है। हिंदू धर्म में केवल विवाहित महिलाएं ही सिंदूर का प्रयोग करती हैं। दोनों विधवा महिलाओं और अविवाहित लड़कियों को सिंदूर लगाने की अनुमति नहीं है। सिंदूर लगाने से महिलाओं का सौंदर्य, या उनका आकर्षण भी बढ़ता है। विवाह समारोह में दूल्हा (दूल्हा) दुल्हन (दुल्हन) के माथे पर एक चुटकी सिंदूर लगाते हुए मंत्रोच्चारण करता है। इसके बाद निकाह की रस्में संपन्न हुई। तभी से पत्नी पति की आयु सुनिश्चित करने के लिए रोज सिंदूर लगाती है। स्त्रियों के मधु की निशानी मांग में चमकीला सिंदूर है।
वैज्ञानिक व्याख्या: महिलाएं दिल के ठीक ऊपर के क्षेत्र या ब्रह्मरंध्र और अधमी पर सिंदूर लगाती हैं, जिसे आम बोलचाल में सीमांत या मांग भी कहा जाता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं का यह क्षेत्र अपेक्षाकृत कोमल होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महिलाओं को सिंदूर लगाना चाहिए क्योंकि इसमें अत्यधिक मात्रा में पारा जैसी धातु होती है, जो महिलाओं के शरीर की विद्युत ऊर्जा को नियंत्रित करती है और हृदय को बाहरी प्रतिकूल प्रभावों से भी बचाती है।
तिलक क्यों लगाया जाता है?
शास्त्रों में कहा गया है कि यदि कोई ब्राह्मण तिलक नहीं लगाता है तो उसे “चांडाल” माना जाएगा। तिलक लगाने को एक धार्मिक कृत्य के रूप में देखा जाता है। क्या तिलक सिर्फ ब्राह्मणों को मिलता है अन्य जातियों को नहीं? मस्तिष्क सीधे तिलक, त्रिपुंड, टीका, या बिंदिया, अन्य चीजों से जुड़ा हुआ है। मनुष्य का “आज्ञा चक्र” उसके दोनों भौहों के बीच स्थित होता है। इस चक्र पर ध्यान केन्द्रित करने पर भी साधक के मन को शक्ति प्राप्त होती है। चूंकि सभी जानकारी और जागरूकता एक स्थान से नियंत्रित होती है, इसलिए इसे “चेतना केंद्र” कहना भी स्वीकार्य होगा। “तीसरी आँख,” या “आज्ञा चक्र,” को “दिव्यनेत्र” के रूप में भी जाना जाता है। तिलक “आज्ञा चक्र” को जाग्रत करता है, जिसकी तुलना रडार, टेलीस्कोप आदि से की जा सकती है। तिलक इसके अतिरिक्त सम्मान का प्रतीक है। तिलक लगाने से धार्मिकता और कोमलता का बोध होता है।
वैज्ञानिक व्याख्या: मस्तिष्क का ललाट क्षेत्र, जिसमें ज्ञान तंतुओं का विचार केंद्र होता है, और माथे का मध्य क्षेत्र मस्तिष्क के अधिक काम करने पर असुविधा का अनुभव करता है। तिलक और त्रिपुंड लगाने का सटीक स्थान। चंदन के तिलक से ज्ञान के धागों को ठंडक मिलती है। रोज सुबह स्नान करने के बाद चंदन का तिलक लगाने वाले को सिरदर्द नहीं होता है। यह सच्चाई डॉक्टरों और वैद्यों को पता है। हकीम भी सहमत हैं।
शिखा (शीर्ष) सुरक्षित है, पर क्यों? और शिखा में गांठ (गाँठ) का प्रयोग किस कारण से किया जाता है?
यज्ञ समारोहों में शिक्षा, गायत्री जप, और संध्या चंदन जैसी अन्य साधनाएँ अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। शास्त्रों पर द्विजों (ब्राह्मणों) के लेखन के अनुसार शिखा रखी जानी चाहिए। यज्ञ हवन, संध्यावंदन, या अन्य पवित्र संस्कारों को पूरा करने का एकमात्र तरीका शिखा में गांठ बांधना है।
वैज्ञानिक औचित्य: शिखा के स्थान के पास एक “ब्रह्म रंध्र” है, जिसे “दशम द्वार” के नाम से भी जाना जाता है, जहाँ एक छोटे से घाव से व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है। शिखा को दशमद्वार की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानून के अनुसार रखा जाना चाहिए।
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